घर से निकलते ही ....
15 साल से ज्यादा का पहाड़ सा वक़्त न जाने कब देखते ही देखते बीत गया कुछ पता ही नहीं चल... यह वह वक़्त था जब मैं अपने घर से कुछ बनाने यह कहें की कर गुजरने की हसरत को लेकर निकला था... ... लेकिन अब लगता है की इस वक़्त के साथ ही सुहाना मनभावक जवानी के दिन भी मौसम की तरह अब बदल चूका हैं...रह रह का दिल करता है कम से कम अब तो अपने घर अपने परिवार के बीच जाकर बची हवी जिंदगी के कुछ वक़्त निकालूं..... जब कभी भी कोई त्यौहार होता है या दिल परेशान होता है तो रह रह कर घर की याद आ ही जाती है.. इसी याद जिससे की मेरा बचपन, या कहूँ की मेरा दिल भी अब तक जुड़ा हुवा है.. ...घर की याद आते ही लगता है की हर तरफ फागुन की मस्ती छाई हुवी है .. जिस गली से भी नीलू आवाज आ रही है की " घर कब आओगे..." .. घर से निकलते ही मेरा सबसे पहले मुकाम बना चेन्नई शहर... जहा दादा-दादी और दुसरे रिश्तेदार तो थे लेकिन माँ का अंचल और पापा के प्यार और डांट की कमी हमेशा खटकता रहा.. फिर मेरा ठिकाना बना नवाबो का शहर हैदराबाद.....लेकिन यह शहर भी मेरा अकेलापन दूर नहीं कर सका... आलम यह था की भले ही यहाँ महानगर की मौज मस्ती और आज़ादी पूरे परवान पर थी... कोई रोक टोक नहीं.. लेकिन अकेलेपन में अपने छोटे से गाँव के घर की याद सताने लगी थी...आज भी दफ्तर से जब कभी भी मौका मिलता कुछ दिन की छुट्टी लेकर घर जाना पसंद करता हूँ.... घर हैदराबाद से करीब 1800 किलोमीटर दूर है .. ट्रेन मैं बैठते ही दिमाग में उन सारी पुरानी बातो की तस्वीर उभर आती है जिनसे की मानो मेरा जन्मो जन्मो का नाता है... इसी याद मानो यह सफ़र को काटना मुश्किल बना रही हो.. .. मन करता है की है की उड़ते हुए घर पहुंच जाऊं... घरवाले बहुत याद आ रहे थे... 38 घंटे की थकान भरा सफ़र पूरा करने के बाद मैं घर पहुंचता, तो घर में सूने चेहरों पर मानो मुस्कुराहट लौट आती थी.. मम्मी पापा बहन हर कोई अपना दिन भर का सारा काम काज छोड़कर मानो मेरे स्वागत में ही लग जाते... गली मोहल्लो में गर्व से मेरे मम्मी पापा आज भी कई दिन पहले यह बात कहते नहीं थकते हैं की उनका बेटा आ रहा है... और मेरे जाने से मानों उनकी नजर में सारा घर ही खिल- खिला उठा था..... घरवाले भी जानते थे, कि मैं 5 -7 दिन की छुट्टी पर ही आया हूं.. लेकिन उनके लिए इतना ही काफी था, कि मैं उनकी नज़रों के सामने हूं...नाते-रिश्तेदारों से मुलाकात के बाद अपने पापा की गाडी उठाकर में निकल पड़ता अपने दोस्तों से मिलने और उन गलियों का नज़ारा लेने जहा मेरे बचपन के दिन बीते थे.. दिमाग में पुरानी तस्वीर को सहेजे और जब वहा पहुंचा हूँ तो लगता है सब कुछ बदल गया... लोग दुकाने,, दोस्त .... वक़्त बिताने के लिए हमारी शाम को बेठने की जगह....कोई भुला भटका मिलता तो दुवा सलाम जरुर हो जाती लेकिन शायद अब वह बात नहीं रह गयी थी....
फिर भी मेरा मन आज भी करता है की महानगर की भीड़ बाआड़ से दूर अब वापस हैदराबाद या कहीं और न जाकर न जाकर यहीं रुक जाऊं... अब कौन है उस बेगाने शहर में . किसके लिए वापस जाऊं... यहां तो सभी अपने हैं.. मां-बाप हैं.. बचपन के दोस्त है . एक नहीं बल्कि अपने दो- दो घर है जिन्हें मेरे माता पिता ने बड़े ही चाव से मेरी जवाने के दिनों के लिए यह कहते हुवे तेयार किया था की इसमें से एक घर मेरा होगा और दूसरा वो मेरी बहन को देंगे... . और सबसे बड़ी यहाँ तो सभी में अपनापन झलक उठा है..... ऊपर से कम से कम मां के हाथ का खाना गरमा गरम और मनपसंद ......आलू का परांठा,, गट्ठे की सब्जी भिन्डी का भरवा, और खूब घी चुपड़ी हुवी गरमा गरमा रोटी...जिसे परोसते हुवे माँ के मुह से हमेशा यही निकलता है की " क्यूँ ढंग से खा भी नहीं रहा है देख तो कितना पतला हो गया है... खान खाने के बाद यह शब्द जरुर निकलता की और सब्जी और रोटी राखी है जब भी भूख लगे खा लेना, ऐसे में कौन चाहेगा की इनके दूर रहे ......जितने दिन घर जाता हर पल दिल से यही आवाज़ निकलती की ...अब हैदराबाद लौटकर क्या करोगे... कोई नहीं है वहां तुम्हारा... सिवाए नौकरी के...इसी नौकरी जहाँ कुछ पैसा तो है लेकिन शुकून नहीं है ... न खाने का होश... न जीने का... लेकिन फिर कहीं मन में एक ख्याल आ जाता.. कि घर पर मैं करूंगा भी क्या... न कोई नौकरी.. न कोई कारोबार...
लेकिन दिमाग दिल की आवाज को दबाते हुवे जोर जोर से दहदाता .नहीं..नहीं.. अभी नहीं... इतनी जल्दी नहीं... अभी कुछ दिन और देखता हूं... शायद कोई बात बन जाए... इसी उधेड़बुन में छुट्टी के दिन कहां गुज़र जाते पता भी नहीं लगता... . ऐसा लगता मानो हवा का एक झोका आया... और सबकुछ उड़ाकर ले गया... आँखे नाम हो जाती वापस जाने के नाम से ही... मां की आंखों में आंसू थे..लेकिन वो उन्हें छुपाने की कोशिश करती मानो ( शब्द ही नहीं मिल रहे) ...... यह कसार भी रहती की इन तीन दिन में उनसे दो लफ्ज़ ढंग से बाते भी नहीं हुई थीं.. फिर शुरू हो जाता एसा सफ़र जो की पीछे छोड़ जाता वह दुनिया जहा शकुन, प्यार और अतामियता की दुनिया थी...
लेकिन दिमाग दिल की आवाज को दबाते हुवे जोर जोर से दहदाता .नहीं..नहीं.. अभी नहीं... इतनी जल्दी नहीं... अभी कुछ दिन और देखता हूं... शायद कोई बात बन जाए... इसी उधेड़बुन में छुट्टी के दिन कहां गुज़र जाते पता भी नहीं लगता... . ऐसा लगता मानो हवा का एक झोका आया... और सबकुछ उड़ाकर ले गया... आँखे नाम हो जाती वापस जाने के नाम से ही... मां की आंखों में आंसू थे..लेकिन वो उन्हें छुपाने की कोशिश करती मानो ( शब्द ही नहीं मिल रहे) ...... यह कसार भी रहती की इन तीन दिन में उनसे दो लफ्ज़ ढंग से बाते भी नहीं हुई थीं.. फिर शुरू हो जाता एसा सफ़र जो की पीछे छोड़ जाता वह दुनिया जहा शकुन, प्यार और अतामियता की दुनिया थी...