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Wednesday, October 6, 2010

शादी का लड्डू.

शादी का लड्डू.


बड़ा लुफ्त था जब कुवारे थे हम ... जब कभी यह नगमा सुनाई पड़ता था तब यही सोचते थे की यार लिखने वाले ने तो शादी करने जिंदगी का लुफ्त ले लिया और चले है अब हमें सलाह देने.. ऐसा ही कुछ उस वक़्त भी होता था जब कोई कहता था की शादी एक ऐसा लड्डू है जो खाता है वो भी पछताता है और नहीं खाने वाला भी पछताता है लेकिन अब जबकि हम खुद... ऐसे में खाकर पछतताने से बेहतर और कुछ करना मुर्खता होगी.. लेकिन अब लगने लगा है की शायद लिखने वाले ने सालो पहले अपने अनुभव को धयान में रखकर ही लिखा था लेकिन हम ही थे की उनकी सलाह पर तवज्जो नहीं दे सकें...सोचा था की चलो यार माता पिता की खवाहिश पर शादी कर लेते है शायद इतना सुख तो हम उन्हें दे ही सकते है. बस फिर क्या था. यूँ तो मेरी परवरिश उत्तर भारत में हवी है हालाँकि हैं हम दक्षिण भारत मूल के... लेकिन पिताजी की नौकरी के कारन उत्तर भारत में सालो पहले चले गए..वहा इस कदर दिल लग गया की कभी दक्षिण भारत चार पांच दिनों से ज्यादा दिल को जंचा ही नहीं..बस रिश्तेदाओ से मिलाने मिलाने आ जाना और कुछ दिन बिताकर चले जाना.. खैर जैसे तैसे लड़की खोजी और शादी भी हो गयी लेकिन हकीकत यही है की चाह कर भी न तो में अपने उस जीवन साथी को अपने रंग में रंग पाया और न ही वो कभी मुझे समझ पायी..भाषा, खान पान, रहन सहन सहित हर चीज में छत्तीस का आंकड़ा. हालाँकि वो अपनी जगह सही है और में अपनी जगह सही.. लें क्या इस तरह की जिदगी को ही जिंदगी कहा जाता है.. शायद नहीं...आलम यह है की आज मैं कही और हूँ और मेरे माता पिता कही और..माता पिता की इकलौती संतान होने के नाते दिल से में चाहता है की सब कुछ छोड़ कर उन्ही के पास चला जाऊ.शायद इस उम्र में उन्हें मेरी जरुरत भी ज्यादा है.. वही कोई छोटी मोटी नौकरी करूँ.कम से कम इस बात का संतोष रहेगा की उनकी इकलौती संतान होने के नाते कुछ तो उनके लिए कर पाया.... उन्हें कुछ तो ख़ुशी दी.. लेकिन मजबूरी यह है की दक्षिण भारत में पली बड़ी मेरी जीवन साथी को कभी भी उत्तर भारत अच्छा नहीं लगा. यह सब ठीक वैसा ही है जैसा मेरे साथ दक्षिण भारत में होता है.. आलम यह हो गया की हम दोनों एक ऐसे शहर में आकार बस गए जहा दक्षिण भारत और उत्तर भारत या कहें की कोस्मोपोलेटिन का बोलबाला है. हालाँकि दिल यहाँ भी नहीं लगता और जीवन के हर मोड़ पर मेरा साथ देने का वादा करने वाली भी यह अच्छी तरह समझती है की में बेमन से ही यहाँ हूँ लेकिन उसकी भी मजबूरी है. उसे यह भी लगता है की जिस जगह मेरे माता पिता रहते है वह उसके स्तेंदर्द का नहीं है और वहा जाना जिंदगी को तबाह करने से कम नहीं है.. हो सकता है की उसका यह सोचना भी सही हो क्यों की दक्षिण बहरत के सबसे नामी कोलेज से अच्छी खासी पढाई करने के बाद कोई भला छोटे से शहर में जाकर अपनी जिंदगी क्यों तबाह करना चाहेगा.. उधर माता पिता भी मजबूर हैं की वे भी उत्तर भारत को छोड़ कर नहीं आना चाहते . भला जिस जगह ने उन्हें इतनी इज्जत, नाम और शोहरत दी. जहा के लोगो के साथ वे अपने खुद के परिवार से भी ज्यादा अपनापन महसूस करने लगे हैं वहा से भला अब अचानक किसी दूसरी जगह पर आकार कोई नए सिरे से जिंदगी बसर करना क्यों चाहेगा.. . ऐसे में जिंदगी ने मुझे दो राहे पर लाकर छोड़ दिया है. न तो जीनव साथी को छोड़ कर माता पिता के पास जा पा रहा हूँ और न ही यहाँ खुश रह पा रहा हूँ.. यदि सब कुछ छोड़कर दिल की बात मानते हुवे वह अकेले चला भी जाऊ तो शायद यह उनके खून में ही है की वे कभी नहीं चाहते ही में अपना घर बार छोड़कर उन्हें खुही देने उनके पास इस तरह से अकेला चला आऊं .. किस्मत परीक्षा पर परीक्षा ले रही है.. जिनसे दो चार होने के बाद शायद अब तो मुझे भी लगने लगा है की लगता है की जिंदगी के सारे दाव उलटे पड़ते जा रहे हैं.या कहें शायद शादी का लड्डू मेरे लिए कुछ ज्यादा ही कड़वा बनता जा रहा है.

दिल को छु लेने वली सच्चाई


रंगीन टीवी पर फिल्म चल रही है राजा हिंदुस्तानी... हर कोई मग्न होकर फिल्म देखने में लगा है... एक शॉट् में हीरो आमिर खान करिश्मा कपूर का चुंबन लेता है... और सीटियां बजने लगती हैं... नाइनटीज़ के आखिर में किसी हिंदी फिल्म का ये सबसे लंबा चुंबन सीन था... आशिकों के दिलों की धड़कनें तेज़ हो जाती हैं... लड़कियां लरज़ती हुई अपना चेहरा छिपा लेती हैं.... घड़ी रात का एक बजा रही है... आंखे नींद के आगोश में जा रही हैं... तभी कोई आवाज़ लगाता है... अरे कोई लड़की उठकर चाय बना ला... चाय का नाम सुनकर लड़कियां इधर-उधर दुबकने लगती हैं... क्योंकि एक तो रज़ाई में से निकलकर चूल्हा जलाने का अलकस, उसपर फिल्म के छूट जाने का डर... लेकिन बड़े बुज़ुर्गों के आगे उनकी एक न चलती... मरती क्या न करतीं चाय तो बनाना ही पड़ेगी और वो भी एक-दो नहीं, कम से कम तीस-चालीस लोगों के लिए... वो भी बड़ा सा भगोना भरकर...जिसमें चाय, दूध और पानी का संगम होगा... जिसे चाय कम जोशांदा कहा जाए तो शायद ठीक होगा...

नवंबर 1997 की बात है... जब टीवी का चलन बहुत कम घरों में था... और रंगीन टीवी तो खासकर कम देखने को मिलता था। ज्यादातर घरों में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी ही था। टीवी पर फिल्में तो वैसे भी हफ्ते में दो दिन शनिवार और रविवार को ही आती थी... लेकिन क्या करें बिजली आती नहीं थी, तो फिल्म भला कहां देखने को मिलती। लेकिन फिल्म देखने के शौकीनों ने एक ज़रिया निकाल लिया था.. वीसीआर पर फिल्में देखने का। लेकिन इस वीसीआर पर फिल्म देखने का असली मज़ा तो शादियों के दौरान आता था... घर में शादी के बाद जब काम-धाम निपट जाता था और घर में कुछ रिश्तेदार मेहमान ही बच जाते थे, तो शादी की अगली रात को वीसीआर चलाया जाता था। वीसीआर चलता कम था उसका हल्ला ज्यादा होता था। पूरे मौहल्ले भर को पता चल जाता था कि आज फलां घर में वीसीआर चलेगा... बाकायदा किराए पर वीसीआर मंगाया जाता था.. शादी के घर में जनरेटर तो होता ही था, सो लाइट की कोई फिक्र नहीं होती थी।

एक रात में वीसीआर पर तीन फिल्में चलती थीं। इस दौरान इश्किया मिज़ाज लड़कों की चांदी हो जाती थी, ज़रा किसी लड़की ने वीसीआर का जिक्र छेड़ा, जनाब जुट गये वीसीआर का इंतज़ाम करने में। और तो लड़कियों से उनकी फ़रमाइश भी पूछी जाती थी। शोले हर किसी की फरमाइश में सबसे ऊपर होती थी। वीसीआर चलने से पहले ही घर के सारे काम निपटा लिये जाते। इधर घर के बढ़े-बूढे़ सोने गये, उधर शुरु हो गया वीसीआर पर सनीमा... नवंबर की कड़कड़ाती रात थी और वीसीआर पर शुरु हुआ फिल्मों का दौर। पहली फिल्म चली राजा हिंदुस्तानी... तब ये फिल्म रिलीज़ ही हुई थी। घर के सभी लोग आंगन में दरी-गद्दा बिछाकर बैठे थे... ऊपर से लोगों ने टैंट हाउस से आये लिहाफ़ भी लपेट लिये थे। गाना बजा आये हो मेरी ज़िंदगी में तुम बहार बनके.. एक ड्राइवर से एक अमीर बाप की बेटी का प्यार... एक मिडिल क्लास के लिए इससे बढ़िया स्टोरी भला और क्या हो सकती थी।

बस फिर क्या था, लड़के खुद को सपने में आमिर खान और लड़कियां खुद को करिश्मा कपूर समझने लगीं। और उनके मां-बाप एक दूसरे के लिए खलनायक...। फिल्म देखते-देखते सपनों में अपनी दुनिया बसाने लगे। फिल्म की पूरी स्टोरी ख्यालों-ख्वाबों में उतर जाती। तीन फिल्मों के बीच में हर फिल्म के बाद इंटरवल होता था। इस दौरान चाय का दौर चलता था। लड़कियां चाय बनाने बावर्चीखाने में पहुंची, पीछे से मटरगश्ती करते हुए मजनू मियां भी कतार में लग जाते थे। अगर गलती से ऑपरेटर ने फिल्म लगा दी, फिर देखिए चाय बनाने वाली का गुस्सा... हमारे बिना आये तुमने फिल्म कैसे चला दी, पता नहीं है, हम चाय बना रहे हैं। बेचारे को फिल्म फिर से लगाना पड़ती थी। इस दौरान ऑपरेटर साहब का भी बड़ा रुतबा होता था, टीवी पर फिल्म लगाकर जनाब खुद तो एक कोने में दुबक जाते थे, लेकिन कोई उनको सोने दे तब न...

शोर मचता था.. अरे तस्वीर तो आ नहीं रही है... अरे इसकी आवाज़ कहां चली गई...? सबसे ज्यादा मज़ा तब आता था, जब कैसेट बीच में फंस जाती थी... बेचारे ऑपरेटर को नींद से उठकर आके फिर से वीसीआर को सैट करना पड़ता था। पहली फिल्म के बाद आधे लोग तो सो जाते थे और तीसरी फिल्म तक तो इक्के-दुक्के लोग ही टीवी सैट पर नज़रे चिपकाए होते थे। लेकिन इस दौरान आशिक मिजा़ज अपनी टांकेबाज़ी को बखूबी अंजाम देने में कामयाब रहते थे। अरे भाई फिर फिल्म देखने का फायदा ही क्या हुआ... फिल्म कौन कमबख्त देखने आया था... असली मकसद तो बारात में आई लड़की से टांका भिड़ाना था। लड़की ने अगर मुस्कुरा कर उनसे बात कर ली, तो समझो भाईजान का रतजगा कामयाब हो गया। सुबह मौहल्ले में सबसे ज्यादा सीना उन्हीं का चौड़ा होता था। लेकिन इस दौरान कुछ कमबख्त ऐसे भी होते थे, जो फिल्म तो कम देखते थे, लेकिन दूसरों की जासूसी करने में लगे रहते थे और सुबह की पौ फटने से पहले भांडा फोड़ दिया करते थे। खैर अब न तो वीसीआर रहा, न पहले जैसे सुनहरे दिन.. अब तो फिल्म से लेकर प्यार-मौहब्बत तक सबकुछ हाईटेक हो गया है। sabhar:-