शादी का लड्डू.
बड़ा लुफ्त था जब कुवारे थे हम ... जब कभी यह नगमा सुनाई पड़ता था तब यही सोचते थे की यार लिखने वाले ने तो शादी करने जिंदगी का लुफ्त ले लिया और चले है अब हमें सलाह देने.. ऐसा ही कुछ उस वक़्त भी होता था जब कोई कहता था की शादी एक ऐसा लड्डू है जो खाता है वो भी पछताता है और नहीं खाने वाला भी पछताता है लेकिन अब जबकि हम खुद... ऐसे में खाकर पछतताने से बेहतर और कुछ करना मुर्खता होगी.. लेकिन अब लगने लगा है की शायद लिखने वाले ने सालो पहले अपने अनुभव को धयान में रखकर ही लिखा था लेकिन हम ही थे की उनकी सलाह पर तवज्जो नहीं दे सकें...सोचा था की चलो यार माता पिता की खवाहिश पर शादी कर लेते है शायद इतना सुख तो हम उन्हें दे ही सकते है. बस फिर क्या था. यूँ तो मेरी परवरिश उत्तर भारत में हवी है हालाँकि हैं हम दक्षिण भारत मूल के... लेकिन पिताजी की नौकरी के कारन उत्तर भारत में सालो पहले चले गए..वहा इस कदर दिल लग गया की कभी दक्षिण भारत चार पांच दिनों से ज्यादा दिल को जंचा ही नहीं..बस रिश्तेदाओ से मिलाने मिलाने आ जाना और कुछ दिन बिताकर चले जाना.. खैर जैसे तैसे लड़की खोजी और शादी भी हो गयी लेकिन हकीकत यही है की चाह कर भी न तो में अपने उस जीवन साथी को अपने रंग में रंग पाया और न ही वो कभी मुझे समझ पायी..भाषा, खान पान, रहन सहन सहित हर चीज में छत्तीस का आंकड़ा. हालाँकि वो अपनी जगह सही है और में अपनी जगह सही.. लें क्या इस तरह की जिदगी को ही जिंदगी कहा जाता है.. शायद नहीं...आलम यह है की आज मैं कही और हूँ और मेरे माता पिता कही और..माता पिता की इकलौती संतान होने के नाते दिल से में चाहता है की सब कुछ छोड़ कर उन्ही के पास चला जाऊ.शायद इस उम्र में उन्हें मेरी जरुरत भी ज्यादा है.. वही कोई छोटी मोटी नौकरी करूँ.कम से कम इस बात का संतोष रहेगा की उनकी इकलौती संतान होने के नाते कुछ तो उनके लिए कर पाया.... उन्हें कुछ तो ख़ुशी दी.. लेकिन मजबूरी यह है की दक्षिण भारत में पली बड़ी मेरी जीवन साथी को कभी भी उत्तर भारत अच्छा नहीं लगा. यह सब ठीक वैसा ही है जैसा मेरे साथ दक्षिण भारत में होता है.. आलम यह हो गया की हम दोनों एक ऐसे शहर में आकार बस गए जहा दक्षिण भारत और उत्तर भारत या कहें की कोस्मोपोलेटिन का बोलबाला है. हालाँकि दिल यहाँ भी नहीं लगता और जीवन के हर मोड़ पर मेरा साथ देने का वादा करने वाली भी यह अच्छी तरह समझती है की में बेमन से ही यहाँ हूँ लेकिन उसकी भी मजबूरी है. उसे यह भी लगता है की जिस जगह मेरे माता पिता रहते है वह उसके स्तेंदर्द का नहीं है और वहा जाना जिंदगी को तबाह करने से कम नहीं है.. हो सकता है की उसका यह सोचना भी सही हो क्यों की दक्षिण बहरत के सबसे नामी कोलेज से अच्छी खासी पढाई करने के बाद कोई भला छोटे से शहर में जाकर अपनी जिंदगी क्यों तबाह करना चाहेगा.. उधर माता पिता भी मजबूर हैं की वे भी उत्तर भारत को छोड़ कर नहीं आना चाहते . भला जिस जगह ने उन्हें इतनी इज्जत, नाम और शोहरत दी. जहा के लोगो के साथ वे अपने खुद के परिवार से भी ज्यादा अपनापन महसूस करने लगे हैं वहा से भला अब अचानक किसी दूसरी जगह पर आकार कोई नए सिरे से जिंदगी बसर करना क्यों चाहेगा.. . ऐसे में जिंदगी ने मुझे दो राहे पर लाकर छोड़ दिया है. न तो जीनव साथी को छोड़ कर माता पिता के पास जा पा रहा हूँ और न ही यहाँ खुश रह पा रहा हूँ.. यदि सब कुछ छोड़कर दिल की बात मानते हुवे वह अकेले चला भी जाऊ तो शायद यह उनके खून में ही है की वे कभी नहीं चाहते ही में अपना घर बार छोड़कर उन्हें खुही देने उनके पास इस तरह से अकेला चला आऊं .. किस्मत परीक्षा पर परीक्षा ले रही है.. जिनसे दो चार होने के बाद शायद अब तो मुझे भी लगने लगा है की लगता है की जिंदगी के सारे दाव उलटे पड़ते जा रहे हैं.या कहें शायद शादी का लड्डू मेरे लिए कुछ ज्यादा ही कड़वा बनता जा रहा है.